Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 83 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ९८

तहिण अुतरे तन शंभू१ सरीखा+ ॥२५॥
तन पर की खिंथा२ सु अुतारी।
धरी तहां जहिण परहि निहारी३।
बिरध अवसथा तबि चलि गए।
सादर बोल बिठावति भए ॥२६॥
करो परसपर बाक बिलास।
अुज़तर अुचित दिये तिस पास।
पुन तुरकेश बिलोकन करी।
खिंथा बहु कंपति जहिण धरी ॥२७॥
इत अुत चलहि, अुठहि, गिर धरनी४।
कबि इकठी कबिहोइ पसरनी५।
कबि अूचे हुइ ले अंगराई६।
कबहि जंभाई की समताई७ ॥२८॥
कंपति खिंथा पिखि बिसमायो।
हित बूझन तुरकेश अलायो।
तरै८ गोदरी का तजि आए?
इत अुत होति बिकुल अकुलाए९ ॥२९॥
सुनति कहो श्री नानक नद।
दरवेशन के खाल बिलद।
इन को अंत लैन भल नांही।
नीकी जितक सेव बन जाही ॥३०॥
कोई किमि बरतै किमि होइ।
नित ुदाइ के सनमुख होइ।
जहांगीर ने पुनह बखाना।


१शिव जी वरगा।
+पा:-सुंभ सरीखा।
२गोदड़ी।
३जिज़थोण दिखाई दिंदी रही।
४धरती ते डिज़ग पैणदी है।
५फैल जावे।
६आकड़ां लवे।
७अुबासीआण लैं वाणू (करदी है)।
८नीचे।
९बिआकुल हो दुखी हो रिहा है।

Displaying Page 83 of 626 from Volume 1