Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ९६
आगे लरे घेर हम लीनसि,
संग वजीद पठाना१।
नीठ नीठ करि गमनो बचि कै
रोको वहिर मदाना ॥८॥
अबि तुम चढहु न लरिबे कारन
राखहु चहुदिशि डेरे।
देहु न कछू प्रवेशन अंतरिइस प्रकार लिहु घेरे ॥९॥
दुरग मझार खरचिबे कारन
जमा न वसतू काई।
घ्रिज़त सनेह अंन बहु नाहिन
नहि बरूद समुदाई ॥१०॥
गुलकाण आदि वसत्र वथु सगरी
पाइ न जबि, निकसैण हैण।
पुरि ग्रामनि ते मनहि करहु सभि२,
कोइ न किनहूं दैहै ॥११॥
दिन अलपनि महि हुइ लचार बहु
मिलहि गुरू तबि आपे।
जिम बाणछहु तिम करहु तबहि मिलि
तुमरो महिद प्रतापे ॥१२॥
सगरे मुलखन के तुम मालिक
कौन अरै बलधारी।
महां मवासी ग़ेर करे सभि
का गुर बात बिचारी३ ॥१३॥
इम गिरपतिनि भनो सुनि दोनहु
रिदे महिद बिसमाए।
पुरख प्रतापवंत मन जानोण,
चली सुमति नहि काए ॥१४॥
सुपति जथा सुख तअू त्रास करि
१वग़ीर खां पठां साडे नाल सी।
२सभ ळ मन्हां कर दिओ।
३विचारे गुरू दी की गल हे? (अ) गुरू दी गज़ल कीह विचारनी होई।