Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ९९
मोहि दिखावहु क्रिपानिधाना! ॥३१॥
अचरज बरतति है मन मेरे।
खिंथा कंपति परिही हेरे।
अपर नहीण कछु जानो जाइ।
का इस बिखै रहो दुख पाइ ॥३२॥
सिरीचंद जी तबहि बुलायो।आवहु! खिंथा महिण जु टिकायो१।
तुरकेशर को अपनो आप।
करहु दिखावन सहत प्रताप ॥३३॥
हुतो गोदरी महिण जुर२ भारा।
श्री गुर सुत ने जबहि हकारा।
जहांगीर कहु आनि चढो है।
शुशक भयो मुख३, कंप४ बढो है ॥३४॥
तन रुमंचु५ लोचन भे लाल।
तपतो पीरा बढी बिसाल।
हाड फोरनी६ सिर मैण बिरथा७।
भयो बिहाल म्रितक हुइ जथा ॥३५॥
हाथ जोरि कहि मुहि न दिखावो।
महां दुखद कौ शीघ्र हटावो।
नांहि त प्रान हान हुइण मेरे।
तुम समरथ सभि रीति बडेरे ॥३६॥
बिनै सुनति गुर पुज़त्र अुचारा।
हट प्रविशहु तिस खिंथ मझारा।
तिस ते अुतर गयो ततकाला।
लगी हलन गोदरी बिसाला ॥३७॥
जहांगीर सो पुनहिण सुनाइव।
१हे गोदड़ी विच टिकाए गए! आओ।
२ताप।
३मूंह सुज़क गिआ।
४काणबा।
५लूं कंडे हो गए।
६हज़ड भंनंी।
७पीड़ा।