Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ९७

१२. ।दाराशकोह ते औरंगग़ेब॥११ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>१३
दोहरा: शाहजहां को कहति भा, इम आवति मन मोहि।
रोकहु नवरंग भ्रात कहु, चढि करि आगे होहि ॥१॥
चौपई: सुत को समुझावनि हित कहो।
नौरंग दुरबुज़धी बड लहो।
कुटिल महां हठ करनि अरूढा।
छल बल बिखै अधिक मति मूढा ॥२॥
तोहि* सुभाव सरल म्रिदु रूरा।
तिह संग अुतरि सकहि नहि पूरा।
यां ते टरे रहे नहि जाहू।
आइ त आवन दिहु अुत राहू ॥३॥
दारशकोह सुनति नहि मानी।
पदर१ साथ इम भाखति बानी।
इहां आइ जे करहि कुचाला।
पुनहि चलहि का बस तिस नाला ॥४॥
अबि मैण जाइ अगारी तहां।
रोकवि चंबल सलिता२ जहां।
शाहु जहां सुनि रहो हटाइ।
दारशकोह न मन मैण लाइ ॥५॥
बजवाइव कहि कूच नगारा।
सभि अुमरावनि करि कै तारा।
गज बाजनि पर पाखर३ डारी।
पैदल जुगति बाहनी भारी ॥६॥
चलो अुमड करि लशकर ऐसे।
कामत महि सलितापति४ जैसे।
तोप नकर जनु बदन पसारा५।*पा:-हुतो।
१पिता।
२चंबल नामे नदी (दे किनारे)।
३काठीआण।
४समुंदर।
५तोपां मानोण तंदूआण ने मूंह टज़डिआ है।

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