Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १००

इह जुर हमरे तन हित आइव।चढे ताप के हम चलि आए।
तुम सोण बोलन हित तजि थाएण ॥३८॥
चढे ताप के सुनिबो कहिबो।
होति न नीके, तन को दहिबो१।
हम अब जाति सु लेहिण संभारे।
तुरकेशुर सुनि अचरज धारे ॥३९॥
हित रुसद२ बहु भेट मंगाई।
गुर सुत लई न, तजि तिस थाईण।
ले खिंथा सेवक पर चढे।
तुरकेशुर के संसे कढे ॥४०॥
जाइ आपने थांन बिराजे।
सिरीचंद रस जोग जु पागे३।
खट पतशाही लगि जग रहे।
अधिक आरबल तन की लहे ॥४१॥
श्री गुर हरिगुबिंद के नद४।
श्री बाबा गुरदिज़ता चंद।
तिनहु जाइ करि सीस निवावा।
बिनै ठानि बहु भाव बधावा५ ॥४२॥
कुलहि६ अुतार तबहि निज सिर ते।
तिन के सीस धरी निज कर ते।
अपन सथान थाप करि आप।
करति भए दीरघ परताप ॥४३॥
स्री बाबा गुरदिज़ता फेर।
सरब रीति ते भए बडेर।
इन के सिख भे चार अगारी।
जिनहु बैठि कीनसि तप भारी ॥४४॥


१साड़ा हुंदा है।
२विदैगी।
३रज़तेहोए।
४सपुज़त्र।
५प्रेम वधाइआ।
६लमी टोपी।

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