Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) १००
१०. ।रात ळ देवते चरन परसन आए॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>११
दोहरा: स्री अरजन हुइ जामनी, आवहि अजर मझार।
बैठि प्रयंक बिराजते, सभि सुख के दातार ॥१॥
सैया: हाथ को जोरि कै गंग बखानति
आप महां मति देति सबै।
मोहि रिदा डरपंति रहै
इस हेतु करौण बिनती सु अबै।
ब्रिंद बडे अुतपात के घातक
आप सम्रज़थु जबै रु कबै१।
होइ न को बिघना तिस थान
जहां तुम नाम अुचारि तबै ॥२॥
आइ बसे हम ग्राम बिखै
करि ब्रिंद अुपाइ को नदनपायो।
सुंदर रूप बिलद अनदक
एक अहै न दुती अुपजायो।
श्री गुर नानक आप दया करि
हाथ दै जानि कै दास बचायो।
धाइ२ महां अपराधनि ते,
इस पंनग ते सुख सोण अुबरायो ॥३॥
आप चलो अपने पुरि को
तहि बास करो बिघनो नहि होवै।
सेवक ब्रिंद बसैण सभि सेवहि,
चिंत तहां बसि कै हम खोवैण।
ईखद३, ग्राम बिखै बसते,
नर ब्रिंद नही पुरि जेतिक जोवैण४।
थान बडेर के बास करो
सुखरासि! तहां निशचिंत ही सोवैण ॥४॥
श्री गुरनाथ भनो डर ना अुर,
१समूह वडे अुपज़द्रवाण दे नाश करन ळ जद कदी आप (ही) समरज़थ हो।
२दाई।
३थोड़े जहे।
४बहुते मनुख नहीण देखीदे जितने नगर विज़च हुंदे हन।