Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १०१
१२. ।शाह कशमीर ळ। चंदू सुत ते मिहरवान मेल॥
११ॴॴपिछला अंसूततकरा रासि ५ अगला अंसू>>१३
दोहरा: घटिका इक तरफति रहो,
गुरु द्रोही म्रितु पाइ।
जेठे कहो चंडाल सोण,
लेहु ऐणच गहि पाइ ॥१॥
चौपई: बिशटा महि ऐणचति ले चलो।
वहिर शहिर ते अबि तुम निकलो।
रावी के प्रवाह महि जाइ।
तट थित है करि देहु बगाइ ॥२॥
गहे चंडाल खैणच करि चले।
रावी तीर होइ करि खले।
पापी को बगाइ तन डारा।
इस प्रकार गुरुद्रोही मारा ॥३॥
सिज़खन मन को कोप घनेरे।
जबहि अवज़गा गुर की हेरे।
गुरद्रोही को पिखि अस हाल।
भयो शांति सभि को तिस काल ॥४॥
श्री हरि गोविंद जोधा बली।
जथा जोग कीनी इह भली।
किस के मन महि हुति न कैसे।
शाहु दिवान मारीअहि ऐसे ॥५॥
अस अनबन को गुरू बनावैण।
बनी बात ततछिन बिगरावैण।
इम बहु जसु को कहि नर ब्रिंद।
धंन धंन श्री हरि गोबिंद ॥६॥
सिज़ख बिलोकति गमने डेरे।
पहुचो जेठा गुरू अगेरे।
सुधि दीनसि गुर द्रोही मरो।
ऐणचि नदी महि गेरनि करो ॥७॥
सुनि करिसतिगुरु सभि महि कहो।
जस कीनसि अघ, तस फल लहो।