Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) १०२
१४. ।धीरमज़ल दी कठोरता॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>१५
दोहरा: वसतु सकल को देखि कै, धीरमल आनद।
कंचन के कंकन दियो, हरखति लिये मसंद ॥१॥
चौपई: बूझे ते सगरो बिरतांत।
कहो मसंद सुनहु सभि बात।
परालबध ते जीवत रहो।
चली तुपक तबि नीक न लहो१ ॥२॥
हले हाथ चाटति गई भाल२।
तिन जननी आई ततकाल।तिस ने रज़छा करि सभि भांती।
जीवत रहो न होयहु हाती ॥३॥
नहि परंतु आगे पुन करे।
इम करिबे ते भै बहु धरे।
निशचै जानहु गुरुता तेरी।
जहि कहि लेहु भेट बहुतेरी ॥४॥
तेग बहादर का हम आगे।
सभि सोढी लरिबे ते भागे।
तुम समान नहि दूसर कोई।
अुज़दम करि है गुर है सोई ॥५॥
इस प्रकार जे द्रिढ तुम रहो।
निहसंसै गुरता कहु लहो।
जथा शकति निज सैन बनावहु।
श्री हरिराइ सदरश रहावहु ॥६॥
सुभट शसत्र के धरने हारे।
बली तुरंगम तर असवारे।
हुते सहज़स्र अढाई सोइ।
समुख शज़त्र के शसत्री३ जोइ ॥७॥
जिह ठां चलहि तार सभि रहैण।
१चंगी तर्हां दिज़सदा नहीण सी।
२भाव गोली मज़थे ळ छुह के लघ गई।
३शसत्र प्रहारी।