Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १०१धरम बैशनो१ अपनो चीना।
अंगीकार नहीण किय तीनो२।
सिंघन संग सपरधा भीनो ॥२०॥
दैश भाव दोनहु महि जागा।
डेरा प्रिथक अुतरिबे लागा।
ग्राम अनिक महि सिंघ प्रवेशे।
तिस ते संग मिलहि नहि कैसे ॥२१॥
केतिक सिंघनि मसलत धारी।
गमने गुर ढिग करति पुकारी+।
भयो मूढ के गरब महाना।
चाहति बैठसि गुरू सथाना++ ॥२२॥
इतने महि लशकर बहु आए।
भयो इकाकी जंग मचाए।
सता तीरन महि नहि रही।
सिंघ घने दल जानहि सही ॥२३॥
इम बंदे को भयो प्रसंग।
नित प्रति होति घनेरे जंग।
अबि गुर कथा सुनहु जिम भई।
अबिचल नगर सथिरता कई ॥२४॥
कबहि अरूढि अखेर सिधावैण।
बिचरहि बन महि पुन चलि आवैण।
धरहि भाअु को परहि जु शरनी।
तिसहि तराइ जथा नद तरनी३ ॥२५॥
शाह बहादर दज़खं देश।
फिर करि साधो सकल विशेश।
देश पंजाब गरद करि दीनि।
सूबे कितिक मार करि लीनि ॥२६॥१इस तोण भाव मग़हब वैशनो नहीण, पर मास ना खांे दा खाल। इह अरथ इंना आम है कि
लोकीण सबग़ी वाले भोजन ळ वैशनो भोजन कहिदे हन।
२मद मास ते काला बसत्र।
+कवी जी ळ पता नहीण लगा कि गुरू जी इस वेले सज़चखंड पयाना कर चुज़के सन।
++कवी जी ने इह सौ साखी तोण लए जापदे हन।
३नदी तोण बेड़ी।