Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १०५

ब्रहगान निशचल के धामू ॥१६॥
गुर अंगद सेवे इस रीति।
सुन रुमंच हुइ बिसमति१ चीत।
जबहि बहज़त्र बरख बय२ भई।
तबहि आइ गुर सेवा लई ॥१७॥
दादश संमत करि सुश्रा३।
मुरो न मन कबि, रहो अदूखा४।
बैस चुरासी संमत जबै५।
तखत जगत गुरता६ टिक तबै ॥१८॥
करो प्रकाशन अपनो आपि।
कही पैज अपनी कहु थापि।
-जब लगि जग हमरो तन रहै।
सुत म्रितु७ मात पिता नहिण लहैण८- ॥१९॥दै बिंसत दिज़ली अुमराव९।
तिते सिज़ख मंजी सु बिठाव।
कौन कौन गुन तिन के भनीअहि।
जल तरंग रज१० कन११ सम गनीअहि* ॥२०॥
रामो नाम भारजा१२ अहै।
जिस अुर पतिब्रति बासा लहै।
दै सुत जिस ते जनमति भए।
मोहन नाम मोहरी थए ॥२१॥
अुपजी सुता नाम जिस भानी।

१हैरान हुंदा है चित।
२आयू।
३बाराण साल सेवा करके। ।संस: सुश्रा॥।
४दुखां तोण रहित (अ) अदूशत, भाव निरविघन लगा रिहा।
५अवसथा ८४ साल दी जद होई।
६गुरिआई।
७पुज़तर दी मौत।
८ना देखं।
९बाई सूबे दिज़ली दे पातशाह दे सन।
१०मिज़टी दे।
११किंके।
*पा:-जनीअहि। भनीअहि।
१२महिलां।

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