Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १०६
अपर न पिखीअहि जाणहि समानी१+।
अज़प्रमान२ बर भाग महाना।
जिस को पिता गुरू जग माना ॥२२॥
पुनि भरता ने गुरता पाई।
जिनहु अुधारे नर समुदाई।
पुनह जगत को गुर सुत भयो।
सुजसु प्रकाश दसहुण दिश कयो ॥२३॥
यां ते बहु बडभागा भानी।जहिण कहिण प्रगट नाम जग जानीण।
श्री गुर अमर पुज़त्र बड मोहन।
देव बधू जिसु करहिण न मोहन३ ॥२४॥
सिर ते नगन रहै अुनमज़त४।
रिदे गान दिढ चेतन सज़त।
कबि जुग हाथन५ करहि अहारे।
रहै इकाणत एक चौबारे++ ॥२५॥
नम्रि भयो नहिण किसहि अगारी।
अहंब्रहम अुर महिण दिढ भारी।
अनुज मोहरी सुमति महाने।
पिता बाक सादर६ जिन माने ॥२६॥
दोहरा: जग सागर को तारबे, सगरी संगति पार।
भयो मोहिरी७ मोहरी८, ठानि महां अुपकार ॥२७॥
चौपई: दै बिंसत९ संमत है इक रस।
पंच मास अरु दिवस इकादश।
१तुज़ल।
+भानी जी दी इक होर भैं बी सी जिन्हां दा नाम दानी बीबी जी सी।
२बिअंत।
३अपज़छराण बी जिस ळ मोह नहीण सी सकदीआण।
४मसत।
५दुहीण हथीण।
++ इह चुबारा हुण तक गोइंदवाल विच है।
६सहित आदर।
७आगू।
८नाम गुरू जी दे छोटे बेटे दा।
९बाई साल।