Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १०८
१३. ।बरात दा ढुकाअु॥
१२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>१४
दोहरा: इत ते सहित बरात गुर लवपुरि ते अस कोस।
टिके, सकल तारी करी नेग लाग के जोस१ ॥१॥
पाधड़ी छंद: जे ब्रिध मसंद तिन को हकारि।
धन दीनि तिनहु थातीन डारि२।
करते चलेहु बरखा बिलद।
जिम मेघ अुनवि बरखाइ बुंद३ ॥२॥
जबि सुने अगाअू लैनि आइ।
धुनि अुठी अधिक बादित बजाइ।
तबि मिलिनि हेतु सामीप आनि।मातुल क्रिपाल इत सावधान ॥३॥
छूटे निशान अगवान जाति।
जिन ग़री लाग बहु रंग भांति।
दहि दिशिनि मेल इस रीत कीनि।
जनु घोख घोख घन मिलति पीन४ ॥४॥
वाहिन भजाइ वाहन अुडाइ५।
मिलि आप मांहि आनद अुपाइ।
जनु नदी हरख की अुमड दोइ।
हुइ संगम, अंग अुमंग सोइ६ ॥५॥
गन वसतु अज़ग्र गुर के टिकाइ।
सभि परे पाइ चित चाइ चाइ।
बहु बिनै भनी सभि हाथ बंदि।
हम अलप लघू, तुम बड बिलद७ ॥६॥
निज दासि जानि पत लेहु राखि।
अबि क्रिपा करी पूरन भिलाख।
१लागीआण दे जी विच लाग लैं दा चाअु (= जोश) सी। (अ) नेग लागके जो स = लागीआण दे लाग
जो सन अुहनां दे देणे दी तारी कीती।
२थैलीआण विच पाके।
३बूंदां, कंीआण।
४मानोण वडे बज़दल गज़ज गज़ज के मिल रहे हन।
५सवारीआण भजाअुणदे हन ते बाहां अुलारदे हन।
६मानोण खुशी दीआण दो नदीआण दा अुमंड के मिलाप हुंदा है, जिन्हां दे अंगां विच चाअु (भरिआ है)।
७वडिआण तोण वज़डे।