Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १०८
१३. ।मिहरवान ळ मेल हित समझाअुणा॥
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दोहरा: जहांगीर कशमीर गा, सतिगुर बसे लहौर।
इक आवति इक जाति हैण, संगति ठौरनि ठौर ॥१॥चौपई: श्री गुर हरिगुबिंद सुनि पायो।
मिहरवान लवपुरि महि आयो।
केतिक दिन बीते इस थाने।
पिता समान बैर को ठाने ॥२॥
गुरु बिचारि अुर -तुरकन पास।
झगरति करति पुकार प्रकाश।
जिस ते माथो चहै टिकावनि।
तिह समीप का नाव चुकावनि ॥३॥
सुरपति आदि निमहि गुर गादी१।
नीको नांहि न होवनि बादी२।
या ते मेल करहि, सुख पाइ।
निज निज थान रहैण हरखाइ- ॥४॥
इम बिचार करि भेजे दोइ।
पैड़ा अपर पिराणा जोइ।
बूझहु जाइ मेल की बाति।
नाहक बाद करहु बज़खाति ॥५॥
सुनि दोनहु तबि चलि करि गए।
खोजो डेरा पहुंचति भए।
बैठे निकट प्रसंग चलायो।
श्री हरि गोबिंद हमे पठायो ॥६॥
बैर भाव को चहति बिसारे।
करति जु बडे३ प्रलोक सिधारे।
हासल कछु न बादि महि होवा।
रहे पुकारू जसु को खोवा ॥७॥
हम तुम मिलि कै अबि इक होइ।
१नीअुणदे हन गुराण दी गज़दी (अज़गे)।
२झगड़ा करन वाला।३(तुहाडे) वज़डे।