Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ११०

१२. ।गुरू का चज़क। संतोखसर दी कार॥
११ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> १३
दोहरा: अमरदास श्री सतिगुरू, जानि सकल गतिलीनि।
सोढी कुल भूखन१ तबै, निकटि बुलावनि कीनि ॥१॥
चौपई: सुन हे सौमु२! बसन हित थान।
ग्राम बसावहु पिखि करि आन।
सने सने निज पाइण टिकावहु।
बहुर करहु पुरि महां बसावहु ॥२॥
जिमि खडूर गुर सेवा करि कै।
पाचे आन बसे हम टरि कै*।
इम नीकी निज रिदै बिचारहु।
बसन हेतु थल जाइ निहारहु ॥३॥
अहै परगना तुमरे पास।
थल आछो पिखि करहु अवास।
सुनि श्री रामदासु कर जोरे।
हुकम आप को मोर अमोरे३ ॥४॥
रावर की रजाइ महिण राग़ी।
इही प्रतज़गा मैण अुर साजी।
जो तुम करहु+ सु आछी होइ।
आछी होइ, करहु तुम जोइ ॥५॥
हम प्रानी का सकैण बिचारे।
सभि गुन सागर महिद अपारे४।
थल को परखन हेतु निकेत।
मैण तुम आगे कहां अचेत५ ॥६॥
अरग़ी सिख की रावरि मरग़ी।
मैण गुर जी! इक सेवा गरग़ी।


१भाव श्री गुरू रामदास जी।
२मनोहर। (अ) ।संस: सौम॥
*पा:-टुरके।
३मेरे पासोण मोड़िआ नहीण जा सकदा।+पा:-कहहु।
४भाव तुसीण हो।
५घर दे थां ळ परखं लई मैण अजाण आप अगे की हां।

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