Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) ११०
कारन इतिक हुतो अबि गयो।
गलन कुठालि समोण अबि भयो।
पुन सिंघन सन गुरू अुचारा।
मोहि पंथ नहि काच* अचारा१ ॥३७॥
नहि बिगरे, को सकै बिगारे२।
रहहु देश तिस बनहु जुझारे।
बेमुख को तजि दीजै संग।
आप शिरोमणि बनहु निसंग ॥३८॥
संमत कितिक समा जबि आवै।
राज खालसे को हुइ जावै।
अवनी के मालिक बनि जै हैण।
मारति मरति तबहि बिदतै हैण ॥३९॥
इम सतिगुर श्री बचन अुचारे।
सुनि कै भए अनदति सारे।
शाहु बहादर सीस निवाइ।
डेरे गमनो सहिज सुभाइ ॥४०॥
जहि कहि लिखि भेजे परवाने।
लशकर चड़्हे महिद महीयाने।
तेज हीन रिपु होयसि मारहु।
जानि न दीजै बहु परवारहु३ ॥४१॥
सरब भेत श्री गुरू सुनायो।
गहि लीजै करि बिबिधि अुपायो।
श्री प्रभु पहुचे अपनिसथाना।
अबि लौ हीरा घाट बखाना ॥४२॥
हीरा गुरू बगावनि करो।
नाम गुदावरि तट को परो।
गेरति हेरति बिसमो शाहू।
हुतो बिकीमत गा जल मांहू४ ॥४३॥
*पा:-काज।
१मेरे पंथ दा कज़चा पिज़ला आचार नहीण।
२ना (आप) बिगाड़ेगा ते नां कोई बिगाड़ सकदा है।
३घेर लओ।
४पांी विच जा पिआ।