Sri Nanak Prakash

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६१. गुर चरण मंगल सिज़ध भंगर, कनीफा, हनीफा, भूतवे, चरपट, झंगर,
संघर ते संभालका नाल चरचा॥

{भंगरनाथ} ॥८, १३.. ॥ {कनीफा} ॥२०..॥
{हनीफा} ॥२५.. ॥ {हनीफा ळ पूरबला हाल दज़संा} ॥२६..॥
{भूतवे} ॥३६.. ॥ {चरपट} ॥४०..॥
{झंगर} ॥४२.. ॥ {संघर} ॥४५..॥
{संभालका} ॥५२..॥
दोहरा: श्री गुरु पग हैण शाति सर,
मन म्रिग तिसहि मिलाइ
कहूं कथा बर पावनी,
जथा मोर मति आइ ॥१॥
म्रिग=भाव हरन वाणू चंचल
पावनी=पविज़त्र, पविज़त्र करन वाली
मोर=मेरी
अरथ: श्री गुरू जी दे चरन शांती दा सरोवर हन, (आपणे) म्रिग (रूपी) मन ळ
अुस (विच) प्रवेश कराके जेही बुज़धी विज़च आवे मैण स्रेशट ते पविज़तर कथा
(अज़गोण दी) कहिंदा हां
सैया: आठवेण बासुर धान छुटा जब
देहि बिखै तब ही सुध१ आई
लोचन सुंदर यौण बिकसे
अरबिंद प्रफुज़लत जोण छबि छाई
मज़जन को करि, भोजन पाइअसीने हैण आसन पै सुखदाई
देहि सजै तन शांति धरा२
कि३ खिमा४ इह आपनो बेख बनाई ॥२॥
दोहरा: श्रोता बकता जे हुते, लीने सरब हकारि
बोले स्री अंगद गुरू, कथा सुनन धरि पार ॥३॥
ऐसे* गुरू भाखी५, बाला! कहो अब साखी इह
कबिज़त:


१होश
२मानो शांती ने सरीर धारिआ है
३या
४खिमा ने
*पा:-बैस
५कही

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