Sri Nanak Prakash
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६३. श्री गुर चरण मंगल सिज़धन चरचा, कौणस (खड़ांव)॥
ताल तोण पांी लिआवंा॥
{झूठे मद दा पिआला} ॥९.. ॥ {घुज़घूनाथ ळ प्रशन} ॥१७..॥
{घुज़घूनाथ दा अुतर} ॥२० ॥ {सिज़धा दे तमाशे} ॥२२..॥
{सिज़धां नाल चरचा} {गुरू जी दी कौणस} ॥२८॥
{कौणस-सुंदर कबित} ॥२९ ॥ {खिंथड़ा} ॥३२॥
{प्राणायाम} ॥३३ ॥ {अूरम, धूरम} ॥३४..॥
{धंगर} ॥३६.. ॥ {ताल तोण पांी} ॥३९॥
दोहरा: चिरंकाल तरु मन सुशक, श्री गुरु पग जल प्रेम
सीणच भले करिके हरो, कहौण कथा दे खेम ॥१॥
तरु=बूटा सुशक=सुज़का दे खेम=जो खेम देणहारी है, कुशलता दाती संस: केम॥
अरथ: मन (रूपी) बूटे ळ, जो चिरोकंा कुमला रिहा है,श्री गुरू (जी दे) चरणां दे
प्रेम (रूपी) जल (नाल) चंगी तर्हां सिंजके ते हरिआ कर कुशलता दाती
(अगोण दी) कथा कहिणदा हां
श्री बाला संधुरु वाच ॥
अड़िज़ल: तब गोरख ने बोलि, भरथरी सोण कही
जावहु तुम अब तहां, आन इह ठां सही
सरब सिज़ध सोण मिलैण, जबै चलि आइ हैण
हो लेहिण दरस को देहिण*, भले१ सुख पाइ हैण ॥२॥
कहिति भरथरी बैन, मिलो जब आदि ही
सुनो तबै शुभ तज़त२, भयो अहिलाद ही
अब तुम आइस मानि, जाइ मैण आनिहोण
हो बंदि अगारी हाथ, बिनति३ बखान होण ॥३॥
अस कहि आइ हदूर, अदेस बखानिया
हरख धारि अुर मिलो, जोरि करि पानिया४
चलिये दीन दयाल! मेरु के अूपरे
हो दरस चहति सभि सिज़ध, अुडीकति हित धरे ॥४॥
बोले पंकज नैन, कीनि सनमानिया
धंन भरथरी तुमै, जोग रस जानिया
*पा:-हो लेह देह दरस को
१चंगी तर्हां२शुभ सिज़धांत
३बेनती
४भाव गुरू जी ळ हज़थ जोड़के मिलिआ