Sri Nanak Prakash
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६६. गुर चरण मंगल प्रहलाद॥
{दुज़ध जमाअुण, मज़खं दा द्रिशटांत} ॥१०..॥
{प्रहलाद दी आदि कथा} ॥२०..॥
{दिब बरख निरणा} ॥४७॥
दोहरा: श्री गुर चरन शरंन पर,
जनम मरन हरि पीर
जोण पारस रंकहि मिलै,
दारिद रहै न तीर* ॥१॥
रंकहि=कंगाल ळ सं: र्ह॥
दारिद=ग्रीबी, कंगालताईतीर=कंढे, कोल, नेड़े
अरथ: (हे मन!) स्री गुरू जी दे चरनां दी शरन पअु (ते) जनम मरन दी पीड़ा
दूर (करा लै), जिस तर्हां कंगाल ळ (जे) पारस मिल जावे (तां) कंगालताई
(अुस दे) नेड़े नहीण रहि जाणदी
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: अज़ग्रज श्री गुर कीन पयान
अललाचीन बिहणग जिह थान विशेश टूक
गजन१ गहिति२ जो निज पग चूंचे३
ले करि अुड जावहि नभ अूचे ॥२॥
निज को दीरघ देहि अकारा
जुग पंखन को वड बिसतारा
हुते जहां पहुणचे सुखरासा
करति तहां प्रहलाद सु बासा ॥३॥
लोचन मुंद्रित बैठो जहिणवा
चलि श्री नानक पहुणचे तहिणवा
श्री करतारं श्री करतारा
अूची धुनि सोण कीन अुचारा ॥४॥
छुटो धान जब प्रभु को देखा
मन महिण बिसमति भयो बिशेखा
*पा:-पीर पीड़ा
१हिरन, छोटा बाराण सिंगा फाछ, गोग़न (अ) हाथी
२फड़दा
३चुंझ नाल