Sri Nanak Prakash
१२०५
६८. गुरचरण प्रेम मंगल प्रहलाद प्रसंग॥
{दैणत पुत्राण ळ वैरागमई अुपदेश} ॥३-१३॥
{प्रहलाद ळ गिआन किवेण होइआ?} ॥१७॥
{मन शज़त्र} ॥५०॥
दोहरा: श्री गुरु पग केतकि पुशप, प्रेम कंट जिह संग॥
मन मलिद को वेध करि, कहोण कथा सु अुमंग ॥१॥
केतकि=केतकी, किअुड़े नाल मिलदा इक छोटा बूटा है जिस ळपीले रंग दे
बड़े खुशबूदार बंद मुंजराण वरगे लबे फुज़ल लगदे हन, इन्हां तोण अतर ते अरक भी
बणदा है इसदी खुशबो अज़छी हुंदी है, प्रंतू कवी जन कहिणदे हन कि भौरा इसदे
फुज़ल ते नहीण बैठदा इस दीआण पज़तीआण नाल कंडे बी हुंदे हन कवि जी कहिणदे
हन कि मैण आपणे मन रूपी भौरे ळ प्रेम दे कंडिआण नाल विंन्हके गुर पग रूपी
केतकी फुज़ल ते बिठावाणगा
कंट=कंडा, कंटक दा संखेप रूप
मलिद=भअुरा
अरथ: श्री गुरू जी दे चरण केतकी (दे फुज़ल समान सुगंधिति हन) जिन्हां दे नाल
प्रेम दा कंडा है, (इसे कंडे नाल) मन (रूपी) भौरे ळ विंन्ह के (हुण मैण
अज़गोण दी) कथा अुमंगां नाल कहिणदा हां
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुनि श्री अंगद कथा पुनीता
कहति प्रहलाद भयो जिस रीता
दैत पुज़त्र जब ढिग है बैसेण१
तिन सोण बचन सुभग अुपदेशे ॥२॥
-दनुज सुतुह! सुनियहि दै काना
करहु प्रान निज को कज़लाना
इह तन दुरलभ जानहु भाई
पुन इसथिर२ नहिण जगत रहाई ॥३॥
सेवहु श्री पति चरन सरोजा {दैणत पुत्राण ळ वैरागमई अुपदेश}
तजहु रिदे ते मानमनोजा३
निस दिन सिमरहु नाम महाना
सभि सुखधाम करति कज़लाना४ ॥४॥
१पास हो के बैठं
२कायम
३हंकार, काम (आदि विकार)
४(नाम) सारे सुखां दा घर है, अते मुकती करदा है