Sri Nanak Prakash

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.१०. अरदास गअूआण चारना खेत हरिआ करना॥

{सतिगुराण अगे अरदास} ॥१॥
{गअूआण चारना} ॥१४..॥
{खेत हरिआ करना} ॥४१॥
सैया: बरआनन ते बर देहु गुरू!
बर ग्रंथ सपूरन होइ अबै
बलि जाइ कवी तुमरो बल पाइ,
करोण कविता शुभ छंद सबै
बल हीन करो बिघना सभि ही,
गुरु कीरति ग्रंथ सु होइ तबै
बिघनातम रूप अमावश को,
यहि ग्रंथ दुती दुति चंद** फबै ॥१॥
बर=स्रेशट संस: वर॥ आनन=मूंह
बर=असीस सफलता दी दात
बर=चाहिआ होइआ, वाणछत संस: बरं=वाणछत धातू बी=चुंना
वर=इज़छा करनी॥
अबै=हुणे, पर मुराद छेती तोण हैबलिजाइ=बलिहार जावे
बल पाइ=ताकत पा के, बल लै के
सु=सुहणी तर्हां तबै=तद विघनातम=विघन
जिसदा सरूप है, विघन (अ) विघना तम=विघन रूप हनेरा विघनां दे
हनेरे रूप वाली (मज़सया)
अमावश=जिस रात चंद्रमां मूलो नहीण निकलदा, मज़सिआ
दुती=दूज दी थित जिस दिन लोक चंद चाह के वेखदे हन, पहिला दिन चंद
चड़्हन दा
दुति=शोभा शोभा वाला संस: दुति=चानंा, प्रकाश॥
अरथ: हे गुरू! आपणे स्रेशट मुखारबिंद तोण (मैळ) वर दिओ कि (इह मेरा)
वाणछित ग्रंथ छेती संपूरण होवे
(आप तोण) सदकेजावे (इह) कवी (हां केवल) आपदा बल प्रापत करके सुहणिआण
छंदां विच (इह) सारी कविता (मैण) रचां
(इस कंम विच अज़गे आअुण वाले) सारे विघनां ळ बलहीन कर दिओ, तां जो गुरू
कीरती दा (इह) ग्रंथ (छेती ते) सोहणी तर्हां (संपूरण) होवे
अते विघनां दे हनेरे रूप वाली अमज़सा ळ इह ग्रंथ दूज दा शोभा वाला चंद्रमा (हो
के) फबे


**पाठांत्र-इंदु

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