Sri Nanak Prakash

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४४. गुरचरण मंगल संगलादीप जाणा शिवनाभ॥

{कीटी अते बिहंगम मारग} ॥१९..॥
{गुरसिख दा सदा ही ब्रत} ॥२२..॥
{पाहन पूजा खंडन} ॥३२॥
दोहरा: श्री गुरु पग दीपक सरस, धरि करि रिदे निकेतु
युकति खोज अुचरोण कथा, श्री बेदी कुलकेतु ॥१॥
सरस=सर स=रस वाली, दीपक सरस=अुह दीवा जिस विच तेल वटी सज़भो
कुछ है भाव, पिआर पूरत २. सुंदर ३. जिस विच कविता दे अुज़चे भाव भरे
होण संस: सरस॥
निकेत=घर युकति=युकती
केतु=निशान, झंडा, प्रकाश, गिआन, तारा
अरथ: स्री गुरू जी दे चरन सरज़स दीवे (समान) हन, (अुस दीपक, ळ आपणे)
हिरदे (रूपी) घर विच रज़खके बेदीआण दी शोभा वाली कुल दे केतु (श्री गुरू
नानक देव जी) दी कथा युकती ते खोज (नाल प्रापत करके) अुचारन करदा
हां
भाव: एथे कवि जी पता देणदे हन कि कथा ओह ऐवेण नहीण कर रहे, जिंनी कि खोज
अुन्हां दे हालात मूजब ओदोण मुमकिनसी, आप ने कीती ते युकती दी
कसवज़टी ते लाई है
स्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: कछुक अहै मनसुख बिरतंते
सो सुनिये श्री गुर जसवंते
गयो संगलादीप सु जहिणवा१
नगर शिरोमणि२ थो इक तहिणवा३ ॥२॥
धनी लोक जहिण बसति अपारा॥
बहु सुंदर जिह रचे बजारा
मनसुख लेय बनज४ निज सगरा५
प्रापति भयो जाइ तिह नगरा ॥३॥


सर पद दे होर अरथ एह हन:-चाल, टुरना, तीर, दहीण, मलाई, लूं, पांी, तला, झरना,
आदि
१जिज़थे
२वडा नगर
३तिथे
४सौदा
५सारा

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