Sri Nanak Prakash

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४९. गुर पद नख मंगल त्रिया राज अुपदेश॥

{प्राण संगली} ॥६॥
{लगर विज़च इज़की मण लूं} ॥१०॥
{त्रिआ राज} ॥१७॥
{मरदाने दा मीढा} ॥२१॥
{घड़ा सिर चंबड़िआ} ॥२९॥
{नूरशाह} ॥३०॥
दोहरा: श्री गुर पद नख क्राणति जो, ि
चंतामनहि समान॥
चितवे मंगल सरबदा,
विघन दोख गन हानि ॥१॥
चिंतामन=इक कवि संकेतक मणि, जिस तोण जो कुझ मंगीए यां चितवीए सो
देणदी है संस: चिंतामणि॥
चितवे=चितवं नाल, इज़छा करननाल
सरबदा=सारे समिआण विच, हमेश संस:सरवदा॥
दोख=दोश, पाप गन=सारे
हान=नाश हुंदे, हानी हुंदे
अरथ: श्री गुरू जी दे चरनां दे नहुंवाण दी जो क्राणती है (ओह) चिंतामणी दे तुज़ल है,
(जिस ळ) चितवन नाल सारे विघनां ते पापां दा नाश हुंदा है (अर) सदा
मंगल दी प्रापती हुंदी है
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुनि करि श्री गुर को अुपदेशा
हाथ बंदि है कहिति नरेशा
मन निरमल के मारग दोअू
करुनाकरि बशहु, दुख खोअू! ॥२॥
करहु सरब मम देश निहाला
तुम समान नहिण आन क्रिपाला
करहु सदीव बास मुझ बदना
हरखोण हेरि कमल सम बदना ॥३॥
जिस प्रकार तुम कितने कोसा
चलि आए निज देनि भरोसा
तिसी प्रकार रहिन अब कीजै

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