Sri Nanak Prakash
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५४. गुर चरन मंगल मधुरबैन, देवलूत राखश॥
{ब्रहम पुर} ॥१०॥
{मरदाने दे खिझ के कहे बचन} ॥१६॥
{मधुरबैन} ॥१७॥
{जप, तप, करम, नाम बिनां निहफल} ॥३१॥
{मरदाने नाल बिलास दे बचन} ॥५३॥
{राकशां दा राजा} ॥६५ ॥ {राकश अंन्हे होए} ॥७५॥
{सज़त वारी परतावा} ॥८१ ॥ {देवलूत} ॥८९॥
दोहरा: शारदूल श्री गुरुचरन, शरन परो मैण धाइ
जंबुक जम बपुरा निबल, तां को कहां बसाइ ॥११॥
शारदूल=शेर संस: शारदूल॥
जंबुक=गिदड़ संस: जमबुक॥
बपुरा=विचारा, ग्रीब
बसाइ=वसहै, वस चले, पेश जावे
अरथ: श्री गुरू जी दे चरन शेर (समान हन), मैण दौड़ के अुन्हां दी शरन जा पिआ
हां, (हुण भला) जम दा, (जो) निरबल ते बपुड़ा गिदड़ है, की वस चज़ले
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुनहु कथा श्री अंगद रूरी
सरब कामना करहि जु पूरी
सुधरसैन के दे अुर धीरा१
गमने आगे गुनी गहीरा ॥२॥
चले जाहिण सागर पै ऐसे
बिनां पंक धरनी पर जैसे
भनति जाति श्री मुख ते बचना
हास करन दी जिन महिण रचना ॥३॥
टापू आवा एक अगारी
गमन कीन पुन तांहि मझारी
दोइ कोस ते पुरि इक देखा
अति सुंदर जिह दुरग२ बिशेखा ॥४॥
तिह ठां बैसि गए गतिदाना
निकट नगर नहिण कीन पयाना
तीन दिवस बीते अुदिआना१
१धीरज
२फसील