Sri Nanak Prakash
१००२
५५. गुर चरण मंगल देवलूत, बनमानस राखश॥
{देवलूत प्रती अुपदेश} ॥७..॥
{बनमानस} ॥२५॥
{दैणत ने मरदाना साबत निगलना} ॥५२॥
{दैणत दी पूरब कथा} ॥७१॥
{सतिसंगति महिमा} ॥७८॥
दोहरा: श्री गुरु चरन खगेश सम, जाइ शरन तिन कोइ
जग बंधन अहिराज से, मुकतै तिन ते सोइ** ॥१॥
खगेश=गरुड़ संस: खग=पंछी एश=मालिक पंछीआण दा सुआमी, भाव
गरुड़॥
अहिराज=सज़पां दा वज़डा (अ) वज़डे वज़डे सज़प, नाग संस: अहि=सज़पराज=वडा=शेश नाग
अरथ: श्री गुरू जी दे चरण गरुड़ समान हन, जगत दे बंधन वज़डे वज़डे सज़पां समान
हन (जो) कोई अुन्हां (चरणां) दी शरन जा पवे ओह अुन्हां (जगबंधनां) तोण
छुटकारा पा लैणदा है
भाव: जो अहिराज तोण मतलब वज़डे सज़पां दा लईए तां जग बंधनां नाल सुहणा
ढुकदा है, किअुणकि कवि जी ने जग बंधनां ळ बहुवचन लिखिआ है इस
लई द्रिशटांत विच कहे पदां दा भाव बी बहुवचन विच चाहीदा है
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुनहु गुरू अंगद गति दानी
कथा रसाल बिसाल सुहानी
देवलूत निज भ्रिज़त१ बुलाए
तूरन राखश सपत पठाए२ ॥२॥
तिन ते फलण मधुरे मंगवाए
अुज़तम और अंन अनिवाए
करुनानिधि के धरे अगारी
हाथ जोरि करि गिरा अुचारी ॥३॥
दोहरा: करहु रसोई संत जी!
भोजन अचहु बनाइ
शरधा पूरन कीजिये
पा:-जोइ
**पा:-मुकत तिनै ते होइ
१आपणे दास
२भेजे