Sri Nanak Prakash

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५८. संत मंगल मज़का, जीवं प्रसंग॥

दोहरा: श्री गुर शबद कमाइ जिन,जीते पंच बिकार
तिन संतन को बंदना, सिर चरनन पर धारि ॥१॥
शबद कमाइ=शबद दी कमाई करके, अज़ठे पहिर वाहिगुरू दा नाम जपके
अर तिस विच रस प्रतीती करके
पंज बिकार=काम, क्रोध, लोभ, मोह, हंकार
अरथ: जिन्हां ने श्री गुरू (जी दे) शबद दी कमाई पंजाण विकाराण ळ मारके कीती है,
तिन्हां संतां दे चरणां पर सिर धरके (मेरी) नमसकार होवे
श्री बाला संधुरु वाच ॥
सुनो गुरू अंगद जी आगे पुन कथा अब
कबिज़त:
बैठे जगतेश कोअू घटी१ तिह थान हैण
दीनन के दानी बोले बदन ते बानी तब
देख मरदाने जाण को चाहिति महान है
*'श्री प्रभु पुनीत! इह चारोण दिस भीत२
करैण कहूं मैण प्रतीत, सभि तुरक अजान हैण
कैसी इह रीति, काण को पूजैण करि प्रीत नर?
मो को तो अनीत सी फुरति पाजवान३ है ॥२॥
'देखो मज़ध४ जाअु जैसो बनो है बनाअु यां को
बैन सुनि चलो मरदाना हुलसाइ के
गयो जब पौर५ तहां बैसे हैण मुजौर६
कहैण ईहां करि काज जोअू आगे करैण जाइ कै
हौण तो हौण७ तुरक, मो को आगे कोण न जानि देहो?
दरसपरस हटि आवोण सुख पाइ कै
देखन८ रजाइ नहीण हम हूं ते जाइ तहां


१घड़ी
*मरदाना बोलिआ
२कंध
३पाज वाली
गुरू जी बोले
४अंदर
५दरवाजे
६पुजारी
७मैण तां हां
८देखं दी

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