Sri Nanak Prakash

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जिअुण पंडत बेदांत बिचारति
नैक न मन को कितहूं टारति
सुनि करि पिता बचन को बोले
संपट बिज़द्रम१ अंम्रित खोले ॥३०॥
सपत शलोकी पढि हौण गीता {सपत शलोकी गीता दे अरथ सुणाए}
अरथ विचारोण तिह करि प्रीता
जिस के पढन विचारन करिकै
शुभ मारग परहहिण हित धरिकै ॥३१॥
दोहरा: कालू अुर अचरज करति, अचरज बचन सुने जु
लखने की लालस लगी, कूर कि साच२ भने जु३ ॥३२॥
चौपई: मुझ को पढि करि देहु सुनाई
अरथ भनहु४ जिअुण परहि लखाई५
सुनि पित की बानी सुख खानी
अरथ कहतिभे जिह दुख हानी ॥३३॥
अरथ बखानयो सतिगुर पूरे
भव तारन को जिह पद रूरे*
बचन बदति अधभुत लघु गीता
सुनति तात६ म्रिग घंटक७ प्रीता ॥३४॥
प्रथम पाठ करि परम प्रबीना
गिरा८ मधुर सुंदर रस लीना
बहुर अरथ करि सभि समझायो
तातपरय४ जो तिह महिण पायो ॥३५॥
सुनि करि कालू करति बिचारा९


१मूंगिआण दा डज़बा, भाव मूंह खोल्हिआ
२कूड़ है कि सज़च
३जो आखदा है
४कहो
५समझ पैं
*अंक ३३ दे-सुन पित... तोण..... हूरे-तक चार पद इक लिखत दे नुसखे विच हैन, छापे विच
नहीण
६पिता
७घंडेहेड़े वाली
८बाणी
९मतलब

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