Sri Nanak Prakash
१६१२
२२. निरविकार मन दा मंगल लाहौर ळ स्राप, ब्राहमण ते ग्रामन प्रसंग॥
२१ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ२३
{गुरू जी लाहौर पहुंचे} ॥३..॥
{लाहौर ळ स्राप} ॥४..॥
{पखंडी ब्राहमण} ॥७..॥
{झूठ पाखंड बिना गुग़ारा नहीण?} ॥२६..॥
{वसदे रहो!} ॥५९॥
{अुजड़ जाअु!} ॥६१॥
दोहरा: हे मन बंदन तुहि* करोण, तजि कै सरब बिकार
श्रीसतिगुर की शरन परि, भव ते है निसतार ॥१॥
अरथ: हे मेरे मन मैण तैळ (बी) नमसकार करदा हां (कि तूं मेरी लाज ऐअुण रख)
कि सारे विकाराण ळ तिआग के श्री सतिगुरू जी दी शरण पै जाहु जो संसार
तोण निसतारा प्रापत हो जावे
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: श्री अंगद स्रेशट गुनखानी!
सुंदर कथा सुनहु सुखदानी
बिचरति बहुर बेख अस धरि कै
लोकन को कलिआन बिचरि कै ॥२॥
रामति१ करते सहिज सुभाए
लवपुरि२ मांही चलि करि आए {गुरू जी लाहौर पहुंचे}
हुतो कसाबपुरा३ जिह थाना
तहां ठांढि भे क्रिपा निधाना ॥३॥
गो बध महां पाप अवलोका
पुरा तुरक तप लखि४ रिस रोका५
नातुर नाश करन इछ धारी
तदपि क्रोध सोण गिरा अुचारी ॥४॥ {लाहौर ळ स्राप}
स्री मुखवाक ॥
लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु ॥२७॥
वाराण ते वधीक*पा: -तहिण
१चलंा
२लाहौर
३कसाईआणा
४तुरकाण दा पूरब जनम दा तप लखके
५गुज़सा रोकिआ