Sri Nanak Prakash
१७३५
३१. बेनती, सिज़खी रहुरीत दा अरंभ शहु सुहागन, मूला, अुज़च दा पीर॥
३०ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ३२
{सिज़खी रहुरीत दा आरंभ} ॥२..॥
{सिआलकोट} ॥७॥
{मरना सज़च जीवन झूठ} ॥११..॥
{मूला} ॥१९॥
{शहु सुहागण} ॥२५..॥
{अुज़च दा पीर जलाल} ॥५२..॥
{गुरमुख दे माइने} ॥५८..॥
{मूला वापिस} ॥७८..॥
दोहरा: करमहीं कुड़िआर मैण; लोभी, कामी, बाम
लाज रखहु निज बिरद की, जगत कहै सिख नाम ॥१॥
करमहीं=पिछले या हुण दे करम मेरे शुभ नहीण, मेरे पास शुभ करमां दी
रास नहीणकुड़िआर=झूठा, पर इस दी मुराद निरे-झूठ बोलं वाले-दी नहीण, पर
ओह कि जो मन बच करम तोण झूठ विच प्रविरत होवे
अरथ: मैण करमां दा हींा ते कूड़िआर हां, लोभी कामी (ते हर तर्हां) मंदा हां, (हे
गुरो!) आपणे बिरद दी लजा रज़खो (किअुणकि) जगत मेरा नाम सिख करके
लैणदा है
भाव: मुराद है इह कि मेरे पास गुणां दी ते शुभ करमां दी रास नहीण, वरताअु
ते जीवन झूठ दा है, लोभ काम ते मंदिआई दा सुभाव है, मेरी कज़लान
मेरे करमां करके ते गुणां करके नहीण हो सकदी, मैळ लोकीण सिख आखदे हन
गुरू दा, इस गज़ल दी लजा गुरू पाले तां मेरी कज़लान है
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुनि श्री अंगद! सुजस सुहावन
आगै कथा भई जिम पावन
करी कीरतन की शुभ रीता {सिज़खी रहुरीत दा आरंभ}
सवा जाम निस ते है नीता१ ॥२॥
सेवक सिज़ख अनिक चलि आवहिण
दरशन करि अभिमत फल२ पावहिण
कितिक रहहिण सेवा अुर धारहिण
कितिक बचन सुनि सदन सिधारहिण ॥३॥
देग चलहि सभि काल बिशाला१सवा पहिर रात रहिणदी ते हमेश
२वाणछत फल