Sri Nanak Prakash
१७४९
३२. गुरशरन मंगल, जलाल ळसुमज़ति गुरमुख दे अरथ॥
३१ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ३३
{जलाल दा प्रसंग} ॥२..॥
{गुरमुख दे अरथ} ॥४६..॥
दोहरा: कूर आसरे अपर तजि, गहु सतिगुर की शरन
मल अुतारि बहु बिशय की, हरहु जनम पुन मरन ॥१॥
अरथ: होर झूठे आसरे तिआग के सतिगुर दी शरन फड़, विशिआण दी बहुती मैल
(जो सहेड़ बैठा हैण अुस ळ) अुतार, (ऐअुण आपणा) जनम मरन दूर कर लै,
(भाव ऐअुण मुकती ळ प्रापत हो)
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: अब जलाल को सुनहु ब्रितंते {जलाल दा प्रसंग}
श्री अंगद जी! गुन गनवंते
श्री गुर को बसाइ निज थाईण
तूरन मारग आयो धाई ॥२॥
दोहरा: गयो तहां बिन बिलम ते, जहिण सागर को तीर
इक जहाज आयो तबहि, चढि बैठो पिखि पीर ॥३॥
चौपई: चलो जहाज सु अुदधि१ मझारे
लगो जाइ गिर एक किनारे
अुतरो तब जहाज ते गयो
गिर देखिन के हित हुलसयो ॥४॥
अति सुंदर मंदिर बहु देखे
जिन महिण सिहजा रुचिर बिशेखे
मानव को२ नहिण देखो तहिणवाचित महिण अति चज़क्रित है रहिवा ॥५॥
करै बिचार, पिखौण परदोखू३
निस रहि अंन अुदर निज पोखू४
सिंधु किनार आइ सो बैसा
कौतक तहां बिलोको ऐसा ॥६॥
दोहरा: इक जहाज बूडन लगा, रौर परो तिसु मांहि
पीर तीर बैसो सुनो, बहुत लोक बिललाहिण ॥७॥
१समुंदर
२कोई
३देखांगा शाम ळ
४रात रहिके अंन नाल पेट आपणा भराणगा