Sri Nanak Prakash
५१७जहिण नामी को देश सुहावन
तहां करहि बिन बिलम१ पुचावन ॥११॥
बहुर न जग महिण पावहिण देही
सज़तिनाम के भे२ जु सनेही३
सुनि अुपदेस लगी लिव नामू
जागो परम प्रेम अभिरामू४ ॥१२॥
कहिति गिरा है दीन बहोरी
दरस लालसा५ रिदे न थोरी६
तुम गमने७ अब पुरि सुलताना
मोहि होति ब्रिह कशट महाना ॥१३॥
प्रीति बिलोकि८ रिदे महि साची
कमल बदन पुन गिरा अुबाची
चित चेतै राखहु अवनीपा९!
मैण होण तुमरे सदा समीपा ॥१४॥
अस प्रकार दे करि अुर धीरा
घर आए पुनि गुनी गहीरा१०
मिली मात अुर प्रेम बढाई
बिछुरति बछ११ जिअुण धेनु लवाई१२ ॥१५॥
आशिख१३ देति पलोसति माथा
मनहिण मनावति स्री जगनाथा
सुत की कुशल करहु सभि काला
महां पुरख तुम दीन दयाला ॥१६॥
१देर तोण बिनां
२जो होए हन
३प्रेमी
४सुंदर
५इज़छा
६बहुत है मेरे मन विच
७चज़ले हो
८वेखके
९हेराजा
१०गुणां दे समुंदर
११वज़छे ळ
१२जिवेण लवेरी गां
१३असीसां