Sri Nanak Prakash
१७८४
३५. गुर जस प्रताप मरदाने दा अंत, अचल वटाले, सज़जं, शहग़ादा॥
३४ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ३६
{मरदाने ळ गुरू जी दे विअंग बचन} ॥२..॥
{खुरमा शहिर} ॥१७..॥
{भाई मरदाने दा अकाल चलांा} ॥२५॥
{भाई मरदाने दा दाह संसकार} ॥२७॥
{गोरख दा मिलाप} ॥२९॥
{सिज़ध गोशट} ॥३०..॥
{शाहग़ादे ळ खुरमे जाण लई कहिंा} ॥६०॥
{तुलबा} ॥६६॥
{सज़जं ठग} ॥६८..॥
दोहरा: श्री गुर जस कमलन बनी, मन करिभौर लुभाइ
निस दिन बिचरहु तास महिण, गति सुगंधि शुभ पाइ ॥१॥
बनी=बन वरगी, बन दा हिज़सा, बा, बीची
गति=मुकती
अरथ: श्री गुरू जी दा जस कमलां दी वाड़ी है (इस अुज़ते) मन ळ भौरे वाणू
लुभाइमान करके दिन रात अुस (वाड़ी) विच विचरो, तां मुकती रूपी सुहणी
सुगंधी प्रापत हो जाणदी है
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: श्री अंगद! सुनि कथा महानां
श्री गुर सोण बोलो मरदाना
अब तो कीनी सैल घनेरी {मरदाने ळ गुरू जी दे विअंग बचन}
फिरे जहां तहिण छित बहु हेरी ॥२॥
गमन करहु अबि अपनि निकेता
सुनि बोले बेदी कुलकेता
मरदाने! घर याद तुमारे
रहिति सदा, नहिण करहु बिसारे ॥३॥
जावन की अति चाहि जि होही
देहिण पुचाइ बिलम बिनु तोही
जाइ मिलहु अपने परवारा
बनिता सुत सोण करहु पयारा ॥४॥
कहि मरदाना, सहिज सुभाइक
मैण बूझे, सुनीए सुखदाइक!
प्रथमे जाअुण न सदन मझारे
आप चलहु तौ जाइण सणगारे ॥५॥