Sri Nanak Prakash
१९४३
४६. गुर चरन सेवा, अुपदेश भाई बुज़ढा, बाला प्रलोक गमन॥
४५ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ४७
{भाई बुज़ढा} ॥३..॥
{बूड़ा-बाबा बुज़ढा जी नाल बचन बिलास} ॥६-४१॥
{भाई बाला प्रलोक गमन} ॥४२..॥
{कथा महिमा} ॥६१..॥
दोहरा: किअुण जणजार अुरझो मना!
काज न तेरे कोइ
सतिगुर चरण सरोज को,
सेवि सदा सुख होइ ॥१॥
{जंजार=जंजाल, जगत रूपी जाल, बंधन, झगड़ा, बखेड़ा}
अरथ: हे (मेरे) मन! किअुण तूं बखेड़िआण विच फस रिहा हैण तेरे कंम किसे नहीण
(आअुणा) (श्री) सतिगुरू जी दे चरणां कवलां ळ सेव जो सदैवी सुख (तैळ
प्रापत) होवे
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुणि श्री तेहण कुल अुजियारा१!
प्रभू बिराजहिण पुरि करतारा
इक दिन बहिर२ बिरछ की छाया३
बैठि रहे गुर सहिज सुभाया ॥२॥
बारिक अजा४ चरावति आवा {भाई बुज़ढा}जगन लगो५ जिह भाग सुहावा
तिह बिलोकि बोले गतिदाई
आनहु बाले! बाल बुलाई ॥३॥
मैण गमनो जहिण अजा चरावति
कहो बाल! तुझ तपा बुलावति
किछुक कहति सुनीए ढिग आई
बहुरो अजा चरावहु जाई ॥४॥
सुनि बालिक आवा संग मेरे
हरखो प्रभु को दरशन हेरे
१चानं
२बाहर
३छावेण
४बज़करीआण
५जागण लगे