Sri Nanak Prakash

Displaying Page 659 of 832 from Volume 2

१९५५

४७. शारदा मंगल, स्री परम पावन लहिंा जी मिलाप॥४६ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ४८
{लहिंा जी दा पविज़त्र सरीर, द्रिशटांत} ॥३.. ॥॥ ॥४८॥
{मज़ते की सराण} ॥१०..॥
{लहिंा जी करतारपुर} ॥३२..॥
{लहिंा जी ळ वर} ॥९२..॥
दोहरा: सारुसती सिमरन अुदधि, कविता प्रद जिअुण इंद
बिगसति श्रोता कुमद सुनि, कोक बिमुख दुख दुंद ॥१॥
अुदधि=समुंद्र प्रद=दाता संस: प्रद॥ कोक=चकवी चकवा
अरथ: समुंदर (रूपी) सारदा दा सिमरन मानोण कविता (रूपी) चंद्रमा दा दाता है
(जिस ळ) सुणके कुमदनी वाणूं (प्रेमी) श्रोते तां खिड़ जाणदे हन (पर छुज़टड़)
चकवी वाणूं बेमुख (लोक) बड़े दुखी हुंदे हन
चौपई: अबि श्री अंगद की सुनि कथा
भई जथा अुचरोण मैण तथा* {लहिंा जी दा पविज़त्र सरीर, द्रिशटांत}
जंगल मते जु हुती सराइ
मन पुनीत -फेरु- तांहि थाइ ॥२॥
तेहिं गोत, छज़त्री जिह जाती
करम धरम महिण सभ बज़खाती१
तिह घर जनमो सुत सुखदाई
लहिंा नाम धरो हित लाई ॥३॥
जनमति भगति संगिजिस आई
किधोण तांहि निज देहि बनाई
धीरज खिमां भुजा२ जिह सोहै
अजर जरन३ शुभ रिदा भयो है ॥४॥
मैत्री, मुदिता४, जाणघ५ सुहाई
कट१ करुना की अति छबि पाई


*हुण कथा कवि जी आप कहिं लगे हन
मज़ते दी सराइण जो जंगल भाव मालवे विच सी, इह थां मुकतसर तोण त्रै मील है ते हुण नांगे दी
सराण कहाअुणदी है
१प्रगट सी
आप दा अवतार वैसाख शुदी १ सं: १५६१ बि: विच लिखिआ है
२धीरज ते खिमां दो बाहां
३ना जरी जाण वाली शकती ळ जर लैंा
४म्रिज़तता ते अनदता
५लतां

Displaying Page 659 of 832 from Volume 2