Sri Nanak Prakash

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कहोण साच बच कूर न राई ॥६५॥
सुनि त्रिपता रिस१ कछु कहि बैना
गई आप जहिण किय सुत२ सैना३
तिनहिण जगाइ अचाइ अहारा
पाछे ते मुख बचन अुचारा ॥६६॥
सुनहु पुत्र! लखि दशा तुमारी
दासी भी मुझ हसी अुचारीकहै कि करहिण जहाज लघावन
नहिण यां ते मैण करोण जगावन- ॥६७॥
मात बचन सुनि करि जग सामी
बोले मुख ते अंतरजामी
कमली झमली के बच ऐसे
इस के कहे न मानहु कैसे ॥६८॥
अस कहि करि गमने अुदिआना
बैसे जाइ इकंत सथाना
सो दासी बच कहिने करि कै
भी कमली सुध गई बिसरिकै ॥६९॥
जीवति रही जगत महिण जावद४
नहिण आई सुध तिह को तावद५*
जब ही तयागो भूतक देहा६
भई मुकति गवनी हरि ग्रेहा७ ॥७०॥
इति स्री गुर नानक प्रकाश ग्रंथे पूरबारधे राइ अुपदेश, दासी प्रसंग
बरनन नाम त्रितालीसमोण अधाय ॥४३॥

१गुज़से नाल
२पज़तर ने
३सौंा कीता सी
४जद तक
५तद तक
*कमली होण तोण मुराद शुदाई होण दी नहीण, जिंकू बीमार हुंदे हन, परंतू मसतानी अवसथा दी
मुराद है, कि अुह अंतर मुख सुख विच रही ते बाहरली सुध पूरी सावधानता दी ना होई जे
अंतर मुख सुरत एकागर ते नाम रस विच ना रही होवे, तां मुकत नहीण हो सकदी सी, सुध परती
इस वासते ना कि अुह भांडा हलका सी, रज़बी भेत जर नहीण सकदीसी, जे होश पूरी परतदी तां
डर सी कि अुह रिधीआण सिधीआण विच परच जाणदी ते मुकत ना हो सकदी
६तज़तां दी देह
७हरी दे घर

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